मौलिक अधिकार (अनुच्छेद 14 से 32) मे आपको मौलिक अधिकारों के बारे में जानकारी मिलेगी। मौलिक अधिकार में जानेंगे कि मौलिक अधिकार आखिर किसने शुरू किये?, कौन सा अनुच्छेद हमें क्या अधिकार प्रदान करता है। तो चलिए जानते है
मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) का इतिहास : मानवीय अधिकारों का इतिहास यद्धपि प्राचीन है, परन्तु मानवीय अधिकारों की घोषणा प्रथम समय फ़्रांस की राष्ट्रीय सभा ने 1789 में की थी। फ्रांस की राष्ट्रीय सभा की ओर से मानवीय अधिकारों की घोषणा होने से मौलिक अधिकारों का विषय इतना अधिक महत्वपूर्ण बन गया कि इसके पश्चात अनेक देशो की संवैधानिक सभाओं ने अपने-अपने संविधान में मौलिक अधिकारों के अध्याय अंकित करना आवश्यक समझा।
संयुक्त राज्य अमेरिका के नागरिकों को 1791 में मौलिक अधिकार प्राप्त हुए। इसके पश्चात मानवीय अधिकारों को संविधान में सम्मिलित करना प्रायः एक संवैधानिक परम्परा बन गई। और अब मौलिक अधिकारों को सम्मिलित करना प्रजातंत्र की विशेषता मानी जाने लगी है।
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारो की संख्या जब 26 जनवरी, 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ तो उस समय संविधान में 7 मौलिक अधिकार अंकित थे। दिसंबर 1978 में संसद ने 44वां संवैधानिक संशोधन पारित करके सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों में से निलंबित कर दिया। 44वां संवैधानिक संशोधन 20 जून, 1979 को क्रियान्वित हुआ तथा इस तिथि से भारतीय संविधान में अंकित मौलिक अधिकारों की संख्या 6 हो गयी –
मौलिक अधिकार | |
1. समता या समानता का अधिकार | अनुच्छेद 14 से 18 |
2. स्वतंत्रता का अधिकार | अनुच्छेद 19 से 22 |
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार | अनुच्छेद 23 से 24 |
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार | अनुच्छेद 25 से 28 |
5. संस्कृति और शिक्षा का अधिकार | अनुच्छेद 29 से 30 |
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार | अनुच्छेद 32 |
Fundamental Rights मौलिक अधिकार अनुच्छेद (14-32)
1. समता या समानता का अधिकार
अनुच्छेद 14 (विधि के समक्ष समता) :
इसका अर्थ है कि राज्य सभी व्यक्तियों के लिए एकसमान कानून बनायेगा तथा उन पर एकसमान लागु करेगा।
अनुच्छेद 15 (धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव की मनाही) :
राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग एवं जन्म-स्थान आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी भी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 16 (अवसर की समता) :
राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी।
अनुच्छेद 17 (अस्पृश्यता का अंत) :
अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।
अनुच्छेद 18 (उपाधियों का अंत) :
सेना या विधा संबंधी सम्मान के सिवाय अन्य कोई भी उपाधि राज्य द्वारा प्रदान नहीं की जाएगी। भारत का कोई नागरिक किसी अन्य देश से बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।
2. स्वतंत्रता का अधिकार (Fundamental Rights)
अनुच्छेद 19 में अनुच्छेद 19 (a), (b), (c), (d), (e) और (g) शामिल है
मूल संविधान में सात तरह की स्वतंत्रता का उल्लेख था, अब सिर्फ 6 है (अनुच्छेद 19 f सम्पत्ति के अधिकार) को 44वें संविधान संशोधन 1978 के द्वारा हटा दिया गया।
अनुच्छेद 19 (a) बोलने की स्वतंत्रता, प्रेस की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 19 (b) शांति पूर्वक बिना हथियारों के एकत्रित होने और सभा करने की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 19 (c) संघ बनाने की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 19 (d) देश के किसी भी क्षेत्र में आवागमन की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 19 (e) देश के किसी भी क्षेत्र में निवास करने और बसने की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 19 (g) कोई भी व्यापार एवं जीविका चलाने की स्वतंत्रता
अनुच्छेद 20 (अपराधों के लिए दोष-सिद्धि के संबंध में संरक्षण) :
अनुच्छेद 20 के तहत तीन प्रकार की स्वतंत्रता का वर्णन है –
- किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए सिर्फ एक बार सजा मिलेगी
- अपराध करने के समय जो कानून है उसी के तहत सजा मिलेगी न कि पहले और बाद में बनने वाले कानून के तहत
- किसी भी व्यक्ति को स्वयं के विरुद्ध न्यायालय में गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 21 (प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) :
किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
अनुच्छेद 21क (शिक्षा का अधिकार) :
राज्य के 6 से 14 वर्ष के आयु वाले समस्त बच्चों को ऐसे ढंग से जैसा कि राज्य, विधि द्वारा अवधारित करें, निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध करेगा।
अनुच्छेद 22 (कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध में संरक्षण) :
अगर किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से हिरासत में ले लिया गया हो, तो उसे तीन प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है –
- हिरासत में लेने का कारण बताना होगा,
- 24 घंटे के अंदर (आने-जाने के समय को छोड़कर) उसे दंडाधिकारी के समक्ष पेश किया जायेगा,
- उसे अपने पसंद के वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा।
3. शोषण के विरुद्ध अधिकार
अनुच्छेद 23 (मानव के दुर्व्यवहार और बलात श्रम का प्रतिषेध :
इसके द्वारा किसी व्यक्ति की खरीद-बिक्री, बेगारी तथा इसी प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया गया श्रम निषिद्ध ठहराया गया है, जिनका उल्लंघन विधि के अनुसार दंडनीय अपराध है।
अनुच्छेद 24 (बालकों के नियोजन का प्रतिषेध) :
14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
4. धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अनुच्छेद 25 (अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मैंने आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता) :
कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को मान सकता है और उसका प्रचार-प्रसार कर सकता है।
अनुच्छेद 26 (धार्मिक कार्यो के प्रबंध की स्वतंत्रता) :
व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना व पोषण करने, विधि-सम्मत सम्पत्ति के अर्जन, स्वामित्व व प्रशासन का अधिकार है।
अनुच्छेद 27 (किसी विशेष धर्म के विकास की स्वतंत्रता) :
राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, जिसकी आय किसी विशेष धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से निश्चित कर दी गयी है।
अनुच्छेद 28 (शिक्षा संस्थानों में या धार्मिक पूजा में सम्मिलित होने की स्वतंत्रता) :
राज्य-विधि से पूर्णतः किसी शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। ऐसे शिक्षण-संस्थान अपने विद्यार्थियों को किसी धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेने या किस धर्मोपदेश को बलात् सुनने हेतु बाध्य नहीं कर सकते।
5. संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार
अनुच्छेद 29 (अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण) :
कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रख सकता है और केवल भाषा, जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर उसे किसी भी सरकारी शिक्षा संस्थान में प्रवेश से नहीं रोका जा सकता है।
अनुच्छेद 30 (शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार) :
कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी पसंद का शिक्षा संस्थान चला सकता है और सरकार उसे अनुदान देने में किसी भी तरह की भेदभाव नहीं करेगी।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार
अनुच्छेद 32 :
इसके अंतर्गत मौलिक अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए समुचित कार्रवाइयों द्वारा उंच्चत्तम न्यायालय में आवेदन करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय को पांच तरह के रिट निकालने की शक्ति प्रदान की गयी है –
- बंदी-प्रत्यक्षीकरण : यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है, जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बंदी बनाया गया है। इसके द्वारा न्यायालय बंदीकरण करने वाले ब्यक्ति को निश्चित स्थान और निश्चित समय के अंदर उपस्थित करे, जिससे न्यायालय बंदी बनाये जाने के कारणों पर विचार कर सके।
- परमादेश : परमादेश का लेख उस समय जारी किया जाता है जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता है। इस प्रकार के आज्ञापत्र के आधार पर पदाधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन करने का आदेश जारी किया जाता है।
- प्रतिषेध-लेख : यह आज्ञापत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उंच्च न्यायालयों द्वारा निम्नन्यायालयों व् अर्द्धन्यायिक न्यायधिकरणी को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि इस मामले में अपने यहाँ कार्यवाही न करे, क्योंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
- उत्प्रेषण : इसके द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे अपने पास लंबित मुकदमों के न्याय निर्णयन के लिए उसे वरिष्ठ न्यायालय को भेजे।
- अधिकार पृच्छा लेख : जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है, जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं है, तो न्यायालय अधिकार-पृच्छा के आदेश के द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस अधिकार से कार्य कर रहा है और जब तक वह इस बात का संतोषजनक उत्तर नहीं देता, वह कार्य नहीं कर सकता है।
निवारक निरोध – Fundamental Rights
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 के खंड-3, 4, 5 तथा 6 में तत्संबंधी प्रावधानों का उल्लेख है। निवारक निरोध कानून के अंतर्गत किसी व्यक्ति को अपराध करने के पूर्व ही अपराध के लिए दंड देना नहीं, वरन उसे अपराध करने से रोकना है। वस्तुतः यह निवारक निरोध राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाये रखने या भारत की सुरक्षा संबंधी कारणों से हो सकता है। जब किसी व्यक्ति को निवारक-निरोध की किसी विधि के अधीन गिरफ्तार किया जाता है, तब –
- सरकार ऐसे व्यक्ति को केवल 3 माह तक अभिरक्षा में निरुद्ध कर सकती है। यदि गिरफ्तार व्यक्ति को तीन माह से अधिक समय के लिए निरुद्ध करना होता है, तो इसके लिए सलाहकार बोर्ड का प्रतिवेदन प्राप्त करना पड़ता है।
- इस प्रकार व्यक्ति को यथाशीघ्र निरोध के आधार पर सूचित किये जायेंगे, किन्तु जिन तथ्यों को निरस्त करना लोकहित के विरुद्ध समझा जायेगा उन्हें प्रकट करना आवश्यक नहीं है।
- निरुद्ध व्यक्ति को निरोध आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन करने के लिए शीघ्रातिशीघ्र अवसर दिया जाना चाहिए।
निवारक निरोध से संबंधित अब तक बनायी गयी विधियाँ
- निवारक निरोध अधिनियम, 1950 – भारत की संसद ने 26 जनवरी, 1950 ईस्वी को पहला निवारक निरोध अधिनियम पारित किया था। इसका उद्देश्य राष्ट्र विरोधी तत्वों को भारत की प्रतिरक्षा के प्रतिकूल कार्य से रोकना था। इसे 1 अप्रैल, 1951 ईस्वी को समाप्त हो जाना था, किन्तु समय-समय पर इसको जीवनकाल बढ़ाया जाता रहा है अंततः यह 31 दिसंबर, 1971 ईस्वी को समाप्त हुआ।
- आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम, 1971 – 44वें संवैधानिक संशोधन (1979) इसके प्रतिकूल था और इस कारण अप्रैल, 1979 ईस्वी में यह समाप्त हो गया।
- विदेशी मुद्रा संरक्षण व् तस्करी निरोध अधिनियम, 1974 – पहले इसमें तस्करों के लिए नजरबंदी की अवधि 1 वर्ष थी, जिसे 13 जुलाई, 1984 को बढ़ाकर 2 वर्ष कर दिया गया है।
- राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, 1980 – जम्मू-कश्मीर के अतिरिक्त अन्य सभी राज्यों में लागु किया गया।
- आतंकवादी एवं विध्वंसकारी गतिविधियाँ निरोधक कानून – निवारक निरोध व्यवस्था के अंतर्गत अब तक जो कानून बने उनमें यह सबसे अधिक प्रभावी और सर्वाधिक कठोर कानून था। 23 मई, 1995 ईस्वी को इसे समाप्त कर दिया गया।
- पोटो (Prevention of Terrorism Ordinance, 2001) -इसे 25 ओक्टुबर, 2001 ईस्वी को लागु किया गया। ‘पोटो’ टांडा का ही एक रूप है। इसके अंतर्गत कुल 23 आंतकवादी गुटों को प्रतिबंधित किया गया है। आतंकवादी और आतंकवादियों से संबंधित सुचना को छिपाने वालों को भी दंडित करने का प्रावधान किया गया है। पुलिस शक आधार पर किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है, किन्तु बिना आरोप पत्र के तीन माह से अधिक हिरासत में नहीं रख सकती है। ‘पोटा’ के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है, लेकिन यह अपील भी गिरफ्तारी के तीन माह बाद ही हो सकती है। ‘पोटो’ 28 मार्च, 2002 को अधिनियम बनने के बाद ‘पोटा’ 21 सितंबर, 2004 को समाप्त कर दिया गया।